नारी तेरी यही नियति Woman struggling in hollow rules of society सामाजिक नियम, बंधन, महिला अधिकार, बगैर पिता बेटियों की दशा, हमसफ़र का तलाश women story
नारी तेरी यही नियति Woman struggling in hollow rules of society : समाज में ऐसे तो बहुत कुछ होता रहता है ऐसे में हम आपके लिए नारी तेरी यही नियति Woman struggling in hollow rules of society के लिए एक लेख लेकर हाजिर हूं आइए गौर फरमाएं
समाज के खोखली नियम- नारी तेरी यही नियति Woman struggling in hollow rules of society
किसे कहते हैं जननी क्या वो जननी, हमारे समाज की महिलाएं खुश है : आइए जानते हैं क्या समाज की रूढ़िवादी नियमों, परंपराओं, रस्मों को निभाना इतना जरूरी है कि एक औरत की इच्छाओं का दमन ही हो जाता है।
- चाहे वह जिस भी जाति धर्म से हो। बड़े-बड़े रईस घरानो की महिलाओं का भी स्थिति दयनीय थी और आज भी वर्तमान स्थिति उपेक्षित है ।
- ना उचित सम्मान, न स्वतंत्रता और ना ही किसी कार्य में उनकी उचित राय ली जाती है।
- सारी स्वायत्तता पुरुषों के हाथ में क्यों?
- कभी कोई औरत इन मांगों को पूरा करते हुए अपने आपको इसमें समायोजित रखती भी हैं तब भी उसे
- कुछ नहीं मिलता। sleep-paralysis.
नारी तेरी यही नियति Woman struggling in hollow rules of society |
आज पुनः जुड़ी हूं एक नई कड़ी के साथबहुत देखा जिंदगी में समझदार बनकर
हाथ हमेशा खाली ही रहे
अब कुछ गुस्ताखियां करनी है।
खोने को सब कुछ पाया कुछ भी नहींबहुत देखा जिंदगी में समझदार बनकरअब कुछ गुस्ताखियां करनी है
समाज के नियम में कैद है बेटियों का बचपन :नारी तेरी यही नियति Woman struggling in hollow rules of society
मसला यह भी तो है दुनिया का, कोई अच्छा है तो इतना अच्छा क्यों है। प्यार, परिवार, त्याग, बलिदान, रिश्ते- नाते, समाज सम्मान, इज्जत, संस्कार, परंपरा इन सब को ढोते ढोते इंसान खुद को खो ही देता है क्या बस यही जिंदगी है!
- खासकर बेटियां तो घर की इज्जत होती है। इन्हें इन बातों का कुछ ज्यादा ही ख्याल रखना पड़ता है।
- हमेशा मां-बाप और समाज के बनाए नियमों में अपने हर सपने,
- अपनी हर इच्छा और अपनी और स्वतंत्रता आसमान में उड़ने की ख्वाहिश दम तोड़ देती है यहां तक कि बचपन भी।
- कभी कोई शिक्षित मां बाप अपनी बेटियों को आगे बढ़ाएं भी तो यह समाज उसे भी दबा देती है-
- बेटी है ज्यादा पढ़कर करेगी क्या, चूल्हा चौका ही तो करना है
- समाज के इन खोखली नियमों में बंधकर एक बेटी उस वक्त और दम तोड़ देती है जब उसके मां-बाप का सहारा छिन जाए तो जाए तो जाए कहां।
- अपनी जिंदगी बनाए कैसे, कौन दिखाएं उसे रास्ता, कौन करेगा उसके लिए कौन बनेगा उसका सहारा।
- ढूंढ लाऊं मैं खुद को जरा जी लूं मैं भी जरा जीने का हक मेरा भी तो है
- बहुत देखा जिंदगी में समझदार बनकर अब कुछ गुस्ताखियां करनी है।
आन- बान-शान, शौकत, पोस्ट-पोजिशन, स्टेटस, स्टैंडर्ड इनका गुरुर इंसान के मन की भावना को तो निर्बल कर दिया है। रिश्ते दिल से नहीं दिमाग से निभाए जाने लगे हैं।
- हम ऐसे समाज का हिस्सा है। इन हिस्सों में खुद को तलाशते तलाशते खुद को तराशना तो भूल ही जाती है -महिलाएं मां बेटी बहन बहू।
- किस्मत ने साथ दिया तो रिश्ते प्यार भरे मिले तो ठीक है नहीं तो जाने कितनी बंदिशों पाबंदियों से होकर गुजरती है।
- बहुत देखा जिंदगी में समझदार बनकर अब कुछ गुस्ताखीयां करनी है।
बगैर पिता बेटियों की बढ़ती मुश्किल और उसकी पुकार सुने कौन? Woman struggling
- एक पिता की मौत उसकी पत्नी, उसकी मां के बाद अगर सबसे ज्यादा किसी को खलती है तो वो है बेटी
- वो जाये कहां ढूंढे कैसे खुद को इन रूढ़िवादी मानसिकता वाले लोगों के समाज ने इतनी पाबंदियां लगा रखी है
- मन की व्यथा सुनाऊ भी तो किसे कौन समझेगा मुझे खुद से भी ज्यादा
- वो जिस हमसफर की तलाश में हैं क्या वह भी हमें समझेगा
- जाने कितनी उम्र गुजरी क्या चुपचाप जो हो रहा है उसे नियति मान कर सहस्वीकार लेना ही क्या धर्म है?
- एक पवित्र नारी धर्म, बेटी धर्म, महिला धर्म क्या है ये धर्म। इन सब से लड़ें तो एक महिला को एक लड़की को बुरा बना दिया जाता।
- जलनसील समाज और धोखेबाज दुनिया के भीड़ में हिम्मत लाए कहां से
- नारी को सुनाने वाले तो सब पर इसकी मन की व्यथा सुनने वाला कोई नहीं।
- पिता अपनी बेटी को शादी से पहले बिन बाताये घर की चौखट तक पार होने का इजाजत नहीं देता
- जो चारदिवारीयों में रहकर दुनिया के छल कपट से अंजन है
- उसी बेटी को उसके पिता के जाने के बाद जिंदगी के फैसले खुद कर लेने का भार देना क्या यह गलत नहीं, अन्याय नहीं, समाज के नियमों का उल्लंघन नहीं है?]
- क्या यह कहना उचित नहीं कि ये समाज अपने स्वार्थों के अनुसार नियम बनाते और तोड़ते हैं जो निहायती गैर जिम्मेदार है?
- ऐसे में कैसे किन नियमों का पालन करू या चुपचाप भाग्य का लिखा समझ कर उलझन में उलझी रहूं
- क्या यह कहना उचित नहीं कि हम स्वार्थी समाज में जीते है
- ऐसे समाज की जरूरत क्या है तो फिर क्इया सका त्याग करना धर्म नहीं?
- बहुत देखा जिंदगी में समझदार बनकर अब कुछ गुस्ताखियां करनी है।
"ह्रदय में धधक रही न्याय की इस अग्नि में, हो रहे सम्पूर्ण अन्याय को जला कर भस्म कर दूं । दूं पुनः महाभारत की आवाहन जिसमें अधर्म, लोभी, छल-कपटी लोगों का नाश कर दूं"।
खुशियों की चुनाव में हमसफ़र एक इंतजार
- खुशियों की इस चुनाव में माता-पिता के लिए धर्म और कर्तव्य मुझे रोक लेता है
- जो पिता कभी बच्चों की सफलता पर पीठ थपथपा कर शाबाशी देता है,
- लाख संघर्षों के बाद भी खुशियां भरता, ना टूटने वाली हिम्मत देता कुछ ना होते हुए भी सब कुछ होने का एहसास कराता
- उन आदर्शो को उस पिता के सम्मान में उसके पीछे छोड़ गए कर्मों को धूमिल करना क्या यह उचित होगा
- जो समाज के स्वार्थी व जलनखोर अव्यवस्था का अजीजपन के एकमात्र कारण हो !?
- बहुत देखा जिंदगी में समझदार बनकर और कुछ गुस्ताखियां करनी है
- खुद को ढूंढू भी तो कैसे मेरी पहचान तो मेरे पिता से है उस पहचान को पीछे छोड़ आऊं भी तो कैसे
- खुद से बड़ा कोई साथी नहीं, इस पुरे बह्मांड में सबसे सुन्दर और अंतहीन मन जो हमारे भाव और जीवन का मूल कारण है
- इस मनोभाव से निकलूं भी तो कैसे समय छूट जाने के बाद किसी चीज का मूल्य नहीं रह जाता तो इस समय को फिसलने देना क्या अनुचित नहीं!
- इस समय को रोकू भी कैसे या आपके इसी समाज में रहकर इस अन्याय से आहत हो भाव परिवर्तन में आकर
- आजीवन गृहस्थ का स्वस्थ और पुण्य जीवन त्याग देने के लिए एक लड़की को समाज की सहमति मिलेगी?
- इस भूखे भेड़ियों के समाज में क्या उसकी आचल सुरक्षित होगी!
- या तो समाज की स्वार्थीपन देखते हुए स्वयं को सज करेगी न्याय हेतु।
- बहुत देखा जिंदगी में समझदार बनकर हाथ हमेशा खाली ही रहे
- खोया सब कुछ पानी को कुछ भी नहीं अब कुछ गुस्ताखियां करनी है।
- व्यक्ति अपने पतन और निर्माण के लिए स्वयं ही जिम्मेदार होता है।
- देखती हूं मुझे मेरी गुस्ताखियां सवार देती है या बिखेर देती है।
- समाज के नियमों को तोड़ने पर सवाल करते हैं मान सम्मान, संस्कार, चरित्र, परम्परा धर्म की दुहाई देकर
- एक उंगली दूसरों पर उठाकर बाकी की 4 उंगलियां खुद पर उठाते हैं और एक हंसते खेलते जिंदगी को बर्बाद हो जाती है।
- क्या उस समाज का कोई जिम्मेदारी नहीं बनता कि इन बेटी बहन के प्रति उसका भला हो सके
- सवाल अब भी वही है क्या समाज गैर जिम्मेदार है?
- क्या हमारा समाज हमसे सिर्फ ताने देने, कमियां निकालने, इर्ष्या और स्वार्थ के लिए जुड़ा है ?
- या किसी असहाय व्यक्ति बेटी बहन के लिये न्यायसंगत हो सकता है और कब ?
- समय गुजर जाने के बाद ना उस समय का मुल्य रह जाता है ना तो वह कार्य संतोषपूर्ण होता।
- फिर वो जिंदगी निराशा और हताशा में डूब कर रह बिखर जाती है।
- मुद्दा समाजिक है सोचिए गजल आपकी बेटी बहन है क्यों इतना जुल्म । नारी जाएं तो जाएं कहां। वर्षों से आज भी यह सवाल बना है ।
सभार✍️
यही आपकी इस समाज की सच्चाई है - दुखी महिला कि मन की व्यथा।
यही आपकी इस समाज की सच्चाई है - दुखी महिला कि मन की व्यथा।
अगर धर्म का निर्वाह करने वालों को न्याय ना मिला तो "संसार में बढ़ता अधर्म देखकर प्रतीत होता है कि समाज को नवनिर्मित करने हेतु, न्याय स्थापना हेतु पुनः महाभारत होगा विध्वंस होंगा "।
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